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Tuesday, June 2, 2020

sant kabir das ke dohe

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कबीरदास  एक महान संत ही नहीं बल्कि एक महान  रचनात्मक कवि भी थे। उनकी मुख्य रचनाएँ  साखी , सबद, रमैनी थी। उन्होंने अवधी , सधुक्कड़ी ,व  पंचमेल खिचड़ी  भाषा का प्रयोग किया। 

कबीरदास जी के दोहे :



 १. बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया  कोय  ,
      जो दिल खोजा आपना , मुझसे बुरा न कोय। 
   
  २. पोथी पढ़ि  पढ़ि जग मुआ , पंडित भया न कोय ,
       ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय। 

   ३. साधु ऐसा चाहिए , जैसा  सूप सुभाय ,
       सार-सार को गहि रहै ,थोथा देई उड़ाय। 

    ४. तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय ,
         कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े , तो पीर घनेरी होय। 

    ५. धीरे -धीरे रे मना , धीरे सब कुछ होय ,
          माली सींचे सौ घड़ा , ऋतु आए फल होय। 

     ६. माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ,
           कर का मनका डार ,  मन का मनका फेर। 
                    
      ७. जाति न पूछो साधु की , पूछ लीजिये ज्ञान ,
            मोल करो तरवार का,  पड़ा रहन दो म्यान। 

       ८. दोस पराए देखि करि , चला हसन्त हसन्त ,
             अपने याद न आवई , जिनका आदि न अंत। 

       ९. जिन खोजा तिन पाइया , गहरे पानी पैठ ,
             मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ। 

        १०. बोली एक अनमोल है, जो कोई बोले जनि,
               हिये तराजु तोलि के , तब मुख बाहर आनि। 

        ११. अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
                अति का भला न बरसना , अति की भली न धूप। 

         १२. निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय ,
                 बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे  सुभाय। 

          १३. दुर्लभ मानुष जन्म है , देह न बारम्बार ,
                  तरुवर ज्यो पत्ता झड़े , बहुरि न लागे डार। 

           १४. कबीरा खड़ा बाज़ार में , मांगे सबकी खैर ,
                    ना काहू से दोस्ती , ना  काहू से बैर। 

          १५. कबीर तन पंछी भया , जहां मन तहा उडी जाइ। 
                   जो जैसी संगती  कर , सो तैसा ही फल पाइ। 
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