कबीरदास एक महान संत ही नहीं बल्कि एक महान रचनात्मक कवि भी थे। उनकी मुख्य रचनाएँ साखी , सबद, रमैनी थी। उन्होंने अवधी , सधुक्कड़ी ,व पंचमेल खिचड़ी भाषा का प्रयोग किया।
कबीरदास जी के दोहे :
कबीरदास जी के दोहे :
१. बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय ,
जो दिल खोजा आपना , मुझसे बुरा न कोय।
२. पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ , पंडित भया न कोय ,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
३. साधु ऐसा चाहिए , जैसा सूप सुभाय ,
सार-सार को गहि रहै ,थोथा देई उड़ाय।
४. तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय ,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े , तो पीर घनेरी होय।
५. धीरे -धीरे रे मना , धीरे सब कुछ होय ,
माली सींचे सौ घड़ा , ऋतु आए फल होय।
६. माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ,
कर का मनका डार , मन का मनका फेर।
७. जाति न पूछो साधु की , पूछ लीजिये ज्ञान ,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
८. दोस पराए देखि करि , चला हसन्त हसन्त ,
अपने याद न आवई , जिनका आदि न अंत।
९. जिन खोजा तिन पाइया , गहरे पानी पैठ ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
१०. बोली एक अनमोल है, जो कोई बोले जनि,
हिये तराजु तोलि के , तब मुख बाहर आनि।
११. अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना , अति की भली न धूप।
१२. निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय ,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।
१३. दुर्लभ मानुष जन्म है , देह न बारम्बार ,
तरुवर ज्यो पत्ता झड़े , बहुरि न लागे डार।
१४. कबीरा खड़ा बाज़ार में , मांगे सबकी खैर ,
ना काहू से दोस्ती , ना काहू से बैर।
१५. कबीर तन पंछी भया , जहां मन तहा उडी जाइ।
जो जैसी संगती कर , सो तैसा ही फल पाइ।
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